Главная страница
Случайная страница
КАТЕГОРИИ:
АвтомобилиАстрономияБиологияГеографияДом и садДругие языкиДругоеИнформатикаИсторияКультураЛитератураЛогикаМатематикаМедицинаМеталлургияМеханикаОбразованиеОхрана трудаПедагогикаПолитикаПравоПсихологияРелигияРиторикаСоциологияСпортСтроительствоТехнологияТуризмФизикаФилософияФинансыХимияЧерчениеЭкологияЭкономикаЭлектроника
|
Баллада об одобрении мира
Пусть я не прав, но я в рассудке здравом. Они мне нынче свой открыли мир. Я перст увидел. Был тот перст кровавым. Я поспешил сказать, что этот мир мне мил.
Дубинка надо мной. Куда от мира деться? Он день и ночь со мной, и понял я тогда, Что мясники, как мясники — умельцы. И на вопрос: «Ты рад?» — я вяло вякнул: «Да».
Трус лучше мертвеца, а храбрым быть опасно. И стал я это «да» твердить всему и вся. Ведь я боялся в руки им попасться И одобрял все то, что одобрять нельзя.
Когда народу не хватало хлеба, А юнкер цены был удвоить рад, Я правдолюбцам объяснял без гнева: Хороший хлеб, хотя дороговат.
Когда с работы гнали фабриканты Двоих из трех, я говорил тем двум: Просите фабрикантов деликатно, Ведь в экономике я — ни бум-бум!
Планировали войны генералы. Их все боялись — и не от добра Кричал я генералу с тротуара: «Техническому гению — ура!»
Избранника, который подлой басней На выборах голодных обольщал, Я защищал: оратор он прекрасный, Его беда, что много обещал...
Чиновников, которых съела плесень, Чей сброд возил дерьмо, дерьмом разил, И нас давил налогами, как прессом, Я защищал, прибавки им просил.
И не расстраивал я полицейских, Господ судейских тоже я берег, Для рук их честных, лишь от крови мерзких, С охотой я протягивал платок.
Суд собственность хранит, и обожаю Наш суд кровавый, чту судейский сан, И судей потому не обижаю, Что сам не знаю, что скрываю сам.
Судейские, сказал я, непреклонны, Таких нет денег и таких нет сил, Чтоб их заставить соблюдать законы. «Не это ль неподкупность?» — я спросил.
Вот хулиганы женщин избивают. Но, погодите: у хулиганья Резиновых дубинок не бывает, Тогда — пардон — прошу прощенья я.
Полиция нас бережет от нищих И не дает покоя беднякам. За службу, что несет она отлично, Последнюю рубашку ей отдам.
Теперь, когда я донага разделся, Надеюсь, что ко мне претензий нет, Хоть сам принадлежу к таким умельцам, Что ложь разводят на столбцах газет,
К газетчикам. Для них кровь жертв — лишь колер. Они твердят: убийцы не убили. А я протягиваю свежий номер. Читайте, говорю, учитесь стилю,
Волшебною горой почтил нас автор. Все славно, что писал он (ради денег), Зато (бесплатно) утаил он правду. Я говорю; он слеп, но не мошенник.
Торговец рыбой говорит прохожим: Вонь не от рыбы, сам он, мол, гниет. Подлаживаюсь я к нему. Быть может, И на меня охотников найдет.
Изъеденному люэсом уроду, Купившему девчонку за гроши, За то, что женщине дает работу, С опаской руку жму, но от души.
Когда выбрасывает бедных Врач, как рыбак — плотву, молчу. Ведь без врача не обойтись мне, Уж лучше не перечить мне врачу.
Пустившего конвейер инженера, А также всех рабочих на износ, — Хвалю. Кричу: техническая эра! Победа духа мне мила до слез!
Учителя и розгою и палкой Весь разум выбивают из детей, А утешаются зарплатой жалкой, И незачем ругать учителей.
Подростки, точно дети низкорослы, Но старики — по речи и уму. А почему несчастны так подростки Отвечу я: не знаю почему.
Профессора пускаются в витийство, Чтоб обелить заказчиков своих, Твердят о кризисах — не об убийствах. Такими в общем представлял я их.
Науку, что нам знанья умножает, Но умножает горе и беду, Как церковь чту, а церковь уважаю За то, что умножает темноту.
Но хватит! Что ругать их преподобья? Через войну и смерть несет их рать Любовь к загробной жизни. С той любовью, Конечно, проще будет помирать.
Здесь в славе бог и ростовщик сравнялись. «А где господь?» — вопит нужда окрест. И тычет пастор в небо жирный палец, Я соглашаюсь: «Да, там что-то есть».
Седлоголовые Георга Гросса[1] Грозятся мир пустить в небытие, Всем глотки перерезав. Их угроза Встречает одобрение мое.
Убийцу видел я и видел жертву. Я трусом стал, но жалость не извел. И, видя, как убийца жертву ищет Кричал: «Я одобряю произвол!»
Как дюжи эти мясники и ражи. Они идут — им только волю дай! Хочу им крикнуть: стойте! Но на страже Мой страх, и вдруг я восклицаю: «Хайль!»
Не по душе мне низость, но сейчас В своем искусстве я бескрыл и сир, И в грязный мир я сам добавил грязь Тем самым, что одобрил грязный мир.
| Перевод В. Корнилова
Bertolt Brecht (1898-1956)
BALLADE VON DER BILLIGUNG DER WELT
| | (1932)
| | | |
| | Ich bin nicht ungerecht, doch auch nicht mutig
| | Sie zeigten mir da heute ihre Welt
| | Da sah ich nur den Finger, der war blutig
| | Da sagt ich eilig, daß sie mir gefä llt.
| | | |
| | Den Knü ppel ü ber mir, die Welt vor Augen
| | Stand ich vom Morgen bis zur Nacht und sah.
| | Sah, daß als Metzger Metzger etwas taugen
| | Und auf die Frage: Freut's dich? sagte ich: Ja.
| | | |
| | Und von der Stund an sagt ich ja zu allen
| | Lieber ein feiger als ein toter Mann.
| | Nur um in diese Hä nde nicht zu fallen
| | Billigte ich, was man nicht billigen kann.
| | | |
| | Ich sah den Junker mit Getreide wuchern
| | Hohlwangig Volk zog vor ihm tief den Hut.
| | Ich sagte laut, umringt von Wahrheitssuchern:
| | Er ist ein wenig teuer, aber gut.
| | | |
| | Die Unternehmer dort: nur jeden dritten
| | Kö nnen sie brauchen und verwerten sie.
| | Ich sagte den Nichtunternommenen: Die mü ß t ihr bitten
| | Ich selbst versteh nichts von Ö konomie.
| | | |
| | Sah ihre Militä rs, Raubkriege planend
| | Die man aus Feigheit frei herumgehn ließ.
| | Ich trat vom Gehsteig und rief, Bö ses ahnend:
| | Hut ab! Die Herrn sind technische Genies!
| | | |
| | Die Volksvertreter, die den hungrigen Wä hlern
| | Versichern, daß es durch sie besser wird
| | Ich nenn sie gute Redner, sag: Sie haben
| | Gelogen nicht, sie haben sich geirrt.
| | | |
| | Sah die Beamten, schimmelangefressen
| | Ein Riesenjauchenschö pfrad halten sie in Schwung
| | Selbst schlecht entlohnt fü r Treten und fü r Pressen:
| | Ich bitt fü r sie hiermit um Aufbesserung.
| | | |
| | Dies soll die Polizisten nicht verstö ren
| | Ihnen und selbst den Herren vom Gericht
| | Reich ich das Handtuch fü r die blutigen Hä nde
| | Damit sie sehen, auch sie verleugn' ich nicht.
| | | |
| | Die Richter, die das Eigentum verteidigen
| | Versteckend unterm Richtertisch die blutigen Schuh
| | Will ich, da ich nicht darf, auch nicht beleidigen
| | Doch tu ich's nicht, weiß ich nicht, was ich tu.
| | | |
| | Ich sag: Die Herren kann man nicht bestechen -
| | Durch keine Summe! Und zu keiner Zeit! -
| | Zu achten das Gesetz und Recht zu sprechen.
| | Ich frag: Ist das nicht Unbestechlichkeit?
| | | |
| | Dort, drei Schritt vor mir, seh ich einige Rü pel
| | Die schlagen ein auf Weib und Greis und Kind.
| | Da seh ich eben noch: sie haben Gummiknü ppel
| | Da weiß ich, daß es keine Rü pel sind.
| | | |
| | Die Polizei, die mit der Armut kä mpft
| | Damit das Elend uns nicht ü berschwemmt
| | Hat alle Hä nde voll zu tun. Wenn sie mich
| | Vor Diebstahl schü tzt - fü r sie mein letztes Hemd.
| | | |
| | Nachdem ich so bewiesen, daß in mir kein Arg ist
| | Hoff ich, daß ihr mir durch die Finger seht
| | Wenn ich mich jetzt zu jenen auch bekenne
| | Von denen Schlimmes in der Zeitung steht
| | | |
| | Den Zeitungsschreibern. Mit dem Blut der Opfer
| | Schmieren sie's hin: die Mö rder sind es nicht gewesen.
| | Ich reiche euch die frisch bedruckten Blä tter
| | Und sag: Ihr Stil ist aber gut, ihr mü ß t es lesen.
| | | |
| | Der Dichter gibt uns seinen Zauberberg zu lesen.
| | Was er (fü r Geld) da spricht, ist gut gesprochen!
| | Was er (umsonst) verschweigt: die Wahrheit wä r's gewesen.
| | Ich sag: Der Mann ist blind und nicht bestochen.
| | | |
| | Der Hä ndler dort, beschwö rend die Passanten:
| | Nicht meine Fische stinken, sondern ich!
| | Braucht selber keinen faulen Fisch zu fressen. So, den
| | Halt ich mir warm, vielleicht verkauft er mich.
| | | |
| | Dem Mann, halb von Furunkeln aufgegessen
| | Kaufend ein Mä dchen mit gestohlenem Geld
| | Drü ck ich die Hand vorsichtig, aber herzlich
| | Und danke ihm, daß er das Weib erhä lt.
| | | |
| | Die Ä rzte, die den kranken Armen
| | Wie Angler den zu kleinen Fisch
| | Wegwerfen, kann ich krank nicht missen
| | Ich leg mich ihnen hilflos auf den Tisch.
| | | |
| | Die Ingenieure, die das Fließ band legen
| | Das den dran Schuftenden die Lebenskraft entfü hrt
| | Lob ich des technischen Triumphes wegen.
| | Der Sieg des Geistes ist's, der mich zu Trä nen rü hrt.
| | | |
| | Ich sah die Lehrer, arme Steiß beintrommler
| | Formen das Kind nach ihrem Ebenbild.
| | Sie kriegen ihr Gehalt dafü r vom Staate.
| | Sie mü ß ten hungern sonst. Daß sie mir keiner schilt!
| | | |
| | Und Kinder seh ich, die sind vierzehn Jahre
| | Sind groß wie sechs und reden wie ein Greis.
| | Ich sag: so ist's. Doch auf die stumme Frage:
| | Warum ist's so? sag ich, daß ich's nicht weiß.
| | | |
| | Die Professoren, die mit schö nen Worten
| | Rechtfertigen, was ihr Auftraggeber macht
| | Von Wirtschaftskrisen sprechend statt von Morden:
| | Sie sind nicht schlimmer, als ich mir's gedacht.
| | | |
| | Die Wissenschaft, stets unser Wissen mehrend
| | Welches dann wieder unser Elend mehrt
| | Verehre man wie die Religion, die unsere
| | Unwissenheit vermehrt, und die man auch verehrt.
| | | |
| | Sonst nichts davon. Die Pfaffen stehn mir nahe.
| | Sie halten hoch durch Krieg und Schlä chterei'n
| | Den Glauben an die Lieb und Fü rsorg droben.
| | Es soll dies ihnen nicht vergessen sein.
| | | |
| | Sah eine Welt Gott und den Wucher loben
| | Hö rte den Hunger schrein: Wo gibt's was? Sah
| | Sehr feiste Finger deuten nach oben.
| | Da sagt' ich: Seht ihr, es ist etwas da!
| | | |
| | Gewisse Sattelkö pfe, die vor Zeiten
| | George Grosz entwarf, sind, hö r ich, auf dem Sprung
| | Der Menschheit jetzt die Gurgel durchzuschneiden.
| | Die Plä ne finden meine Billigung.
| | | |
| | Ich sah die Mö rder und ich sah die Opfer
| | Und nur des Muts und nicht des Mitleids bar
| | Sah ich die Mö rder ihre Opfer wä hlen
| | Und schrie: Ich billige das, ganz und gar!
| | | |
| | Ich sah sie kommen, seh den Zug der Schlä chter
| | Will doch noch brü llen: Halt! Und da, nur weil
| | Ich weiß: es stehen, Hand am Ohr, da Wä chter
| | Hö r ich mich ihm entgegenbrü llen: Heil!
| | | |
| | Da Niedrigkeit und Not mir nicht gefä llt
| | Fehlt meiner Kunst in dieser Zeit der Schwung
| | Doch zu dem Schmutze eurer schmutzigen Welt
| | Gehö rt - ich weiß es - meine Billigung.
|
Карл Вольфскель(1869-1948)
|